लोग कवि बन जाते है

लोग कवि बन जाते है

इस पार से अपलक निहारूँ
तुम खड़ी रही उस पार प्रिये
एक हो जाते दोनों के पथ
यदि तुम आ जाते इस पार प्रिये

उन्माद नही यह प्रेम मेरा
जीवन का नित आभास प्रिये
असमर्थ रहा है गायन मेरा
अधरों को मिला प्रवास प्रिये

हो वियोग या हो मिलन
दोनों ही रूप स्वीकार प्रिये
हो प्रेम गरल या हो अमृत
दोनों ही रूप स्वीकार प्रिये

इस जीवन से उस जीवन तक
हर बार तुम्हें ही धारु मैं
जितने भी मेरे जीवन होंगे
हर बार तुम ही पर वारु मैं

छूते ही पंखुड़ियाँ गिर जाती है
नाज़ुक होती है कुछ कलियाँ
जब तोड़ने माली आया तो
लिपट गयी साखों से कलियाँ

जिन्हें प्रेम से सींचा जाता है
वो पुष्प कभी न मुरझाते है
जब अधरो से कुछ न कह पाते
तब लोग कवि बन जाते है
 
शुभेन्द्र सिंह संन्यासी

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1 Comments

Aliya khan

08-Jul-2021 03:58 PM

बेहतरीन

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